लेखकों से अपेक्षित है कि उनकी टिप्पणी समाज में सौहार्दपूर्ण बौद्धिक विमर्श शुरू करे, न कि विवाद : उपराष्ट्रपति
अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग शब्दों की मर्यादा और भाषा के संस्कारों के अनुशासन में रहकर हो : श्री वेंकैया नायडु
अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग जिम्मेदारी से करें, किसी की आस्था या संवेदना को आहत करने के लिए नहीं : उपराष्ट्रपति
लेखक विचारक राष्ट्र की बौद्धिक निधि; कोई राष्ट्र सिर्फ धनधान्य से ही नहीं बल्कि विचारों, संस्कारों और साहित्य सृजन से समृद्ध बनता है : उपराष्ट्रपति
जो समाज जितना सुसंस्कृत होगा, उसकी भाषा उतनी ही परिष्कृत होगी, जो समाज जितना जागृत होगा, उसका साहित्य उतना ही व्यापक होगा : उपराष्ट्रपति
हर भारतीय भाषा राष्ट्र भाषा है, उपराष्ट्रपति ने देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आह्वाहन किया
उपराष्ट्रपति ने भारतीय भाषाओं के बीच संवाद का आह्वाहन किया, विश्वविद्यालयों में अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों के अनुवाद को पाठ्यक्रम में शामिल करने को कहा
विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर, पाठकों तक पहुंचाने का आग्रह किया
उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रीय मीडिया में अन्य भारतीय भाषाओं, उनके साहित्य को उचित स्थान देने को कहा
अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह ही, राष्ट्रभक्ति है : उपराष्ट्रपति
उपराष्ट्रपति ने कहा कि शहरों में आयोजित किए जा रहे लिटफेस्ट से युवा लेखकों द्वारा साहित्य में किए जा रहे नए प्रयोगों को मंच मिला है
उपराष्ट्रपति ने श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को उनकी आत्मकथा "अस्ति और भवति" के लिए 33वां मूर्तिदेवी सम्मान प्रदान किया
उपराष्ट्रपति श्री एम वेंकैया नायडु ने आज कहा कि समाज के बदलते सरोकारों पर प्रबुद्ध वर्ग की टिप्पणी स्वाभाविक भी है और जरूरी भी तथा साहित्यिक लेखन में यह बदलाव दिखना भी चाहिए। लेकिन उन्होंने आगाह किया कि लेखकों से अपेक्षित है कि उनकी टिप्पणी समाज में सौहार्दपूर्ण बौद्धिक विमर्श शुरू करे, न कि विवाद।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि यदि हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी दी गई है तो ये भी अपेक्षित है कि हम उस आज़ादी का उपयोग जिम्मेदारी से करें , किसी की आस्था या संवेदना को आहत करने के लिए नहीं। उन्होंने कहा कि इस आजादी का प्रयोग, शब्दों की मर्यादा और भाषा के संस्कारों के अनुशासन में रह कर भी किया जा सकता है। श्री नायडु ने कहा कि "एक सभ्य समाज की सुसंस्कृत भाषा से यही अपेक्षित है।"
उपराष्ट्रपति आज साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित, 33 वें मूर्तिदेवी पुरस्कार समारोह को संबोधित कर रहे थे। इस अवसर पर हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को उनकी आत्मकथा " अस्ति और भवति" के लिए मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित करते हुए श्री नायडु ने कहा कि लेखक, विचारक, राष्ट्र की बौद्धिक निधि होते हैं। उन्होंने कहा कि कोई भी राष्ट्र मात्र धनधान्य से ही नहीं समृद्ध नहीं बनता बल्कि अपने विचारों, संस्कारों से भी समृद्ध बनता है। अपने साहित्य और सृजन से भी समृद्ध होता है।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि साहित्य समाज में हो रहे चिंतन को दिखाता है, समाज के अनुभव का, उसकी अपेक्षाओं का दर्पण होता है। इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने लेखकों से अपने लेखन में भारतीय परंपरा के मूल्यों, आदर्शों और आस्थाओं को परिलक्षित करने आग्रह किया। उन्होंने साहित्यकारों से देश में नए सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूत्रपात करने का आह्वाहन किया।
शब्द और भाषा मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार बताते हुए श्री नायडु ने कहा कि यदि भाषा संस्कारों और संस्कृति की वाहक है तो साहित्य किसी भी भाषा की सबसे परिष्कृत रूप है। उन्होंने कहा कि साहित्य किसी समाज की विचार-परंपरा का वाहक होता है - "जो समाज जितना सुसंस्कृत होगा, उसकी भाषा भी उतनी ही परिष्कृत होगी। जो समाज जितना जागृत होगा, उसका साहित्य भी उतना ही व्यापक होगा।"
भारत की भाषाई विविधता के विषय में उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत सौभाग्यशाली है कि हमारे देश में भाषाई विविधता है। हमारा साहित्य भी विविध और समृद्ध है। उन्होंने कहा कि हर भारतीय भाषा अपने आप में राष्ट्रीय भाषा है। हर भारतीय भाषा उस क्षेत्र की, उस समाज की पीढ़ियों की चिंतन परंपरा, उसके अनुभव की वाहक है। उन्होंने कहा कि भाषाई विविधता हमारी शक्ति है। ये विविधता हमारी सांस्कृतिक एकता के सूत्र से बंधी है।
उपराष्ट्रपति का यह मानना रहा है कि भारतीय भाषाओं, उनके साहित्य के बीच संवाद होना चाहिए। इस सरदार मैं उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के आह्वाहन का जिक्र किया कि हम सब दूसरी भारतीय भाषाओं के कुछ शब्द, मुहावरे या गिनती अवश्य सीखें। उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश की भाषाई और भावनात्मक एकता के लिए यह बहुत जरूरी भी है।
भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को अन्य क्षेत्रों तक पहुंचाने में नेशनल बुक ट्रस्ट और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं के प्रयासों की सराहना करते हुए, श्री नायडु ने कहा कि इस दिशा में और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है तथा इन प्रयासों में आधुनिक तकनीक सहायक होगी।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय भाषाओं के बीच यह संवाद दोनों तरफ से होना चाहिए तथा हिंदी के पाठकों को भी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का लाभ मिलना ही चाहिए।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश के विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों में अन्य भारतीय भाषाओं से अनुवाद की गई साहित्यिक रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पुरस्कृत नई कृतियों, नई रचनाओं पर विश्विद्यालयों में विमर्श होना ही चाहिए।
इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने कहा कि विश्विद्यालयों में हो रहे शोध, सिर्फ एक थीसिस बन कर रह जाते हैं। यह अपेक्षित है कि एक शोध थीसिस को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाना चाहिए। उसे रोचक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किए जाने के प्रयास होने चाहिए जिससे समाज को उस शोध का लाभ मिल सके।
विगत कुछ वर्षों से कई शहरों में आयोजित साहित्यिक समारोहों या Litfest की चर्चा करते हुए, उपराष्ट्रपति श्री नायडु ने कहा कि इन लिटफेस्ट से युवा लेखकों को मंच मिला है। नए संदर्भों में, नए विषयों पर, पुस्तकें लिखी जा रही, युवा लेखकों द्वारा नए प्रयोग किए जा रहे हैं। 7नहीं कहा कि इन आयोजनों में नए युवा रचनाकारों की नई रचनाओं को प्रबुद्ध समाज और मीडिया के सामने प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है।
इस क्रम में उपराष्ट्रपति ने यह भी रेखांकित किया कि राष्ट्रीय मीडिया में अन्य भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य पर हो रहे शोध को उचित स्थान नहीं मिल सका है। उन्होंने आग्रह किया कि अन्य भारतीय भाषाओं में हो रहे विमर्श को भी राष्ट्रीय मीडिया में स्थान मिलना चाहिए।
राष्ट्रभक्ति की व्याख्या करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि अपने कर्तव्यों दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन ही राष्ट्रभक्ति है। देश के नागरिकों की सेवा ही देशभक्ति है।
श्री नायडु ने कहा कि डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की आत्मकथा " अस्ति और भवति " , स्वयं को ढूंढने का प्रयास है। हमारी दर्शन परंपरा का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आत्मज्ञान से ही ब्रह्मज्ञान तक पहुंचा जा सकता है। आपका मानना है कि वस्तुतः आत्मज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है।
उपराष्ट्रपति ने मूर्तिदेवी पुरस्कार के आयोजक, भारतीय ज्ञानपीठ समिति की सराहना करते हुए कहा कि मूर्तिदेवी पुरस्कार के माध्यम से भारतीय भाषाओं में हो रहे प्रयासों को सम्मानित किया जाता रहा है जिससे नई कृतियों और रचनाओं को साहित्य जगत में प्रतिष्ठा प्रदान हुई है।
उपराष्ट्रपति श्री एम वेंकैया नायडु ने डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को वाग्देवी की प्रतिमा और पुरस्कार राशि का चेक प्रदान किया।
इस अवसर पर मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के अतिरिक्त भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन सहित साहित्य जगत के अनेक गणमान्य अतिथि उपस्थित रहे।
उपराष्ट्रपति के भाषण का सम्पूर्ण पाठ निम्न है –
“बहनों और भाइयों,
आज 33 ( तेंतीसवें) मूर्तिदेवी पुरस्कार समारोह में इस विद्वत समाज के बीच उपस्थित होने का सुयोग मिला है। साहित्यकार, लेखक, विचारक, राष्ट्र की बौद्धिक निधि होते हैं। आप सबके बीच आ कर अभिभूत हूं।
सबसे पहले डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी को इस प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित किए जाने पर हार्दिक बधाई देता हूं। आप गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के आचार्य रहे हैं। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में आपने साहित्य की महती सेवा की है। आपके भावी लेखन के लिए शुभकामनाएं देता हूं।
मैं भारतीय ज्ञानपीठ समिति का अभिनंदन करता हूं। आप मूर्तिदेवी पुरस्कार के माध्यम से 1961 से ही भारतीय भाषाओं में हो रहे प्रयासों को सम्मानित करते रहे हैं।इन पुरस्कारों ने नई कृतियों और रचनाओं को साहित्य जगत में प्रतिष्ठा प्रदान की है।
मित्रों,
शब्द और भाषा मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार हैं। यदि भाषा संस्कारों और संस्कृति की वाहक है तो साहित्य किसी भी भाषा की सबसे परिष्कृत रूप है। साहित्य किसी समाज की विचार-परंपरा का वाहक होता है। जो समाज जितना सुसंस्कृत होगा, उसकी भाषा भी उतनी ही परिष्कृत होगी। जो समाज जितना जागृत होगा, उसका साहित्य भी उतना ही व्यापक होगा।
कोई भी राष्ट्र मात्र धनधान्य से ही नहीं समृद्ध नहीं बनता बल्कि अपने विचारों, संस्कारों से भी समृद्ध बनता है। अपने साहित्य और सृजन से भी समृद्ध बनता है। साहित्य का विमर्श वहां के समाज में हो रहे चिंतन को दिखाता है। डा. तिवारी ने अपनी पुस्तक में ठीक ही कहा है कि हर मनुष्य अपने साथ सदियों की मनुष्यता का अनुभव लिए होता है। साहित्य समाज के उस अनुभव का, उसकी अपेक्षाओं का दर्पण होता है।
भारत सौभाग्यशाली है कि हमारे देश में भाषाई विविधता है। हमारा साहित्य भी विविध और समृद्ध है। हर भारतीय भाषा उस क्षेत्र की, उस समाज की पीढ़ियों की चिंतन परंपरा, उसके अनुभव की वाहक है। हर भारतीय भाषा की अपनी गौरवशाली साहित्यिक परंपरा रही है। भारतीय ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्थाएं, भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य को प्रोत्साहन दे रही हैं। आपके प्रयास अभिनंदनीय हैं।
भाषाई विविधता हमारी शक्ति है। ये विविधता हमारी सांस्कृतिक एकता के सूत्र से बंधी है। मेरा सदा से यह मानना रहा है कि भारतीय भाषाओं, उनके साहित्य के बीच संवाद होना चाहिए। कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने आह्वाहन किया था कि हम सब दूसरी भारतीय भाषाओं के कुछ शब्द, मुहावरे या गिनती अवश्य सीखें। देश की भाषाई और भावनात्मक एकता के लिए यह बहुत जरूरी भी है।
भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को अन्य क्षेत्रों तक पहुंचाया जाना चाहिए। नेशनल बुक ट्रस्ट और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही है, फिर भी इस दिशा में और अधिक प्रयास की आवश्यकता है। आपके प्रयासों में आधुनिक तकनीक आपकी सहायता करेगी।
मुझे यह जानकर खुशी है कि डा. विश्वनाथ तिवारी जी की रचनाओं का अनुवाद तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ सहित अनेक भारतीय भाषाओं में हुआ है। भारतीय भाषाओं के बीच यह संवाद दोनों तरफ से होना चाहिए। हिंदी के पाठकों को भी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का लाभ मिलना ही चाहिए।
इस पावन कार्य में देश के विश्विद्यालय आपके सहज स्वाभाविक सहयोगी होंगें। विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों में भी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को ले कर कुछ पहल होनी ही चाहिए। भारतीय भाषाओं में परस्पर अनुवाद, अपने आप में साहित्य की एक विधा बन सकती है। अन्य भारतीय भाषाओं से अनुवाद की गई साहित्यिक रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। सम्मानित नई कृतियों, नई रचनाओं पर विश्विद्यालयों में विमर्श होना ही चाहिए।
इस संदर्भ में एक बिंदु पर आप सभी विद्वत् समाज का ध्यान दिलाना चाहूंगा। हमारे विश्विद्यालयों में हो रहे शोध, सिर्फ एक थीसिस बन कर रह जाते हैं। अपेक्षित है कि समाज को उनके शोध का लाभ मिल सके। एक शोध थीसिस को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा सके, उसे पाठक के लिए रोचक बनाया जा सके, इसके लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
ये हर्ष का विषय है कि विगत कुछ वर्षों से कई शहरों में आयोजित साहित्यिक समारोहों या Litfest में युवा लेखकों को मंच मिला है। नए संदर्भों में युवा लेखकों द्वारा, नए विषयों पर, पुस्तकें लिखी जा रही, नए प्रयोग किए जा रहे हैं। उन पर बौद्धिक बहस हो रही है।पाठक नए दृष्टिकोण से परिचित हो रहे हैं। इन आयोजनों में नए युवा रचनाकारों की नई रचनाओं को प्रबुद्ध समाज और मीडिया के सामने प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। राष्ट्रीय मीडिया में अन्य भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य पर हो रहे शोध को उचित स्थान नहीं मिल सका है।
मित्रों,
परिवर्तनशील समाज के बदलते सरोकारों पर प्रबुद्ध वर्ग की टिप्पणी स्वाभाविक भी है और जरूरी भी। साहित्यिक लेखन में यह बदलाव दिखना भी चाहिए। लेकिन शब्दों के शिल्पकार लेखकों से अपेक्षित है कि उनकी टिप्पणी समाज में सौहार्दपूर्ण बौद्धिक विमर्श शुरू करे, न कि विवाद।
यदि हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी दी गई है तो ये भी अपेक्षित है कि हम उस आज़ादी का उपयोग जिम्मेदारी से करें। किसी की आस्था या संवेदना को आहत करने के लिए नहीं। अपनी आजादी का प्रयोग शब्दों की मर्यादा और भाषा के संस्कारों के अनुशासन में रह कर भी किया जा सकता है। एक सभ्य समाज की सुसंस्कृत भाषा से यही अपेक्षित है।
डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी की यह आत्मकथा " अस्ति और भवति " , ऐसे विवादों से दूर, स्वयं को ढूंढने का प्रयास है।आपकी यह आत्मकथा, भगवान बुद्ध के जीवन के एक प्रसंग " अत्तानम् किन्न" - खुद को क्यों नहीं खोजते, से प्रारंभ हुई है। हमारी दर्शन परंपरा का हवाला देते हुए वो मानते हैं कि आत्मज्ञान से ही ब्रह्मज्ञान तक पहुंचा जा सकता है। आपका मानना है कि आत्मज्ञान ही ज्ञान है बाकी सब तो सूचना मात्र है।
स्वयं मुझे भी पुस्तक का शीर्षक " अस्ति और भवति" को ले कर जिज्ञासा थी। इसका उत्तर भी मुझे इस पुस्तक से ही मिला। जो मैं "हूं" और "जो होना चाहता हूं "...इन्हीं दो ध्रुवों के बीच की यात्रा है यह जीवन। जिसे इस आत्मकथा पूरी निष्ठा से बताया गया है। तिवारी जी ने उन सामयिक घटनाओं का भी जिक्र किया गया है जिन्होंने इस जीवन यात्रा को प्रभावित किया।
तिवारी जी का मानना है कि लेखक की सार्थकता पाठक को चिंतन की गहराइयों में ले जा कर आत्म रूप को खोजने के लिए प्रेरित करने में है।
इस आत्मकथा के पाठकों को उनके आत्म रूप से साक्षात्कार शुभ हो, इसी कामना के साथ मैं डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी को बधाई देता हूं। इस सुअवसर पर मुझे अपने विचार साझा करने का अवसर दिया, इसके लिए आप सभी सुधी विद्वत समाज को हार्दिक धन्यवाद देता हूं।